विश्वासघात

जिन्हें हम गले से लगाते रहे
वही मुझे खंजर चुभाते गये।

क्या कहें जमाने के लोगों का
मेरा खाते रहे मुझे डुबाते गये।

बात सच और झूठ की किये
वो सच से फासला बढ़ाते रहे।

जिसके लिए हम ही कुर्बां हुए
उसके हाथों से हमीं कुर्बां हुए।

जिसके अश्कों को पोछा मैंने
मेरे अश्कों के वे मुलाज़िम हुए।

क्या कहें कुछ हम कह ना सके
आदत है सुनने की सुनते ही रहे।

बड़े नाज़ो से हम मुखातिब भी थे
अब"अकेला" मेरे ही क़ातिल हुए।

मेरी आदत भी खानदानी ही है
आग में जलकर उन्हें बचाते रहे।

जिनके जख्मों पर मरहम लगाया
ठीक होते ही अवकात देखने लगे।

मेरी अवकात तो कुछ भी नहीं है
सबकी सेवा करूं ये शिरोधार्य है।

मेरी कोई चाह नहीं,कोई दाह नहीं
मैं"अकेला"हूं कोई परवाह नहीं है।
                 -------------
राम बहादुर राय "अकेला"
भरौली, नरहीं, बलिया,उत्तरप्रदेश

Comments

Popular posts from this blog

देहियां हमार पियराइल, निरमोहिया ना आइल

माई भोजपुरी तोहके कतना बताईं

आजु नाहीं सदियन से, भारत देस महान