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Showing posts from March, 2024

आज परिवेश बदल गया है

आज परिवेश बदल गया है!! ---------------------------------- आज परिवेश बदल गया है लगा जमाना संभल गया है! बुद्धि को ऐसे बांट रहा है वो सबका कान काट रहा है! अपना शरीर ढ़ांप रहा है दूसरे का घर झांक रहा है! अपने घर पर्दा कर रहा है सबको बेपर्दा कर रहा है! कैसी दुनिया में जी रहा है दूसरे मूर्ख समझ रहा है! वो नजर गड़ाए घूम रहा है दूसरे का घर ढूंढ रहा है! नदी है सागर समझ रहा है फिर भी सिकन्दर बन रहा है! हमने बहुत करके देखा है अब समझ में आ रहा है! सबको अपने आंक रहा है वक्त अपना बर्बाद कर रहा है! जिसे बेवकूफ समझ रहा है तूं खुद बेवकूफ बन रहा है! आज परिवेश बदल गया है तूं खुद तमाशा बन रहा है! ----------------- @राम बहादुर राय भरौली,बलिया,उत्तर प्रदेश @followers

आखिर तुम मौन क्यूं हो

आखिर तुम मौन क्यों हो ------------------------------ महसूस होते स्पंदित एहसास कोमल हृदय में बार-बार! खड़े अपलक निहारते तुम झंकृत कर रहे हो बार-बार! बढ़ा रही है अदृश्य बेचैनी बगलें झांकती हूं बार-बार! हवा के झोंके से लगते हुए टकराते हो क्यों बार-बार! वर्षों के इंतजार का प्रतिफल मिलना चाहे कोई हर बार! लगता है सदियों बिछुड़े हो प्रेम की लिए अधूरी प्यास! तृष्णा बन रही है मृगतृष्णा निर्गुण नहीं मुझे सगुण चाहिए! तुम कुछ बोलते क्यूं नहीं हो मैं क्या करू तुम्हारे लिए! उस जन्म में भी ऐसे ही थे तड़प की चुभन को सहे होगे! क्यूं मौन होते बार-बार मुझ पर क्या बीती,सोचा है! सदियों से तुम्हारा इंतज़ार तोड़ना होगा मौन इस बार! आखिर तुम मौन ही क्यूं हो प्रेम करना गुनाह तो नहीं! काट दो संत्रास को इस बार अब न सताओ मेरे मोहन! तेरा हर एहसास मुझे है चलो मैं हारी फिर इस बार! ----------------- रचना स्वरचित एवं मौलिक @सर्वाधिकार सुरक्षित।। राम बहादुर राय @followers

जी हां मैं गौरैया बोल रही हूं

जी हां मैं गौरेया ही बोल रही हूं! -------------------------------------- जी हां मैं गौरेया ही बोल रही हूं बिना कहे कुछ बात कह रही हूं। मैं खुश होकर फुदक-फुदकर आंगन-घर कहीं भी चलती थी। पहले घर-घर में मेरे लिए दाने कहीं पानी भी रखा रहता था। हर घर अपना समझ खाती थी बड़े चाव से ताजा पानी पीती थी अपने इन छोटे- छोटे पंखों पर खूब नाज़ करती व इतराती थी। वह दिन मैं जब याद करती हूं अच्छे दिनों से बहुत डरती हूं। कितना स्वार्थी हो गया ज़माना अपनों से ही धोखा मैं पाती हूं। पहले मेरी रक्षा की जाती थी लेकिन मैं अब भी मारी जाती हूं। पहले तो  मैं नहीं डरा करती थी अब तो जान बचाती  फिरती हूं। मेरे  उर  में  सदा  प्रेम  है बसता फिर  भी  शिकार  की  जाती हूं। मैं वैसे मानव  की  तलाश  में हूं जो   मुझे   समझ   सकता  हो। मैं  अब  हर  मानव  से  डरती हूं फिर  छुप-छुप के रहा करती हूं। मैं तो सबका  ही भला करती  हूं पर धीरे - धीरे बिलुप्त हो रही हूं। मेरी प्रजाति भी  अब ख़तरे में है बचाने की गुहार सबसे करती हूं। मैं  आपके  आंगन  की  शोभा हूं छुपकर  के  गौरैया  बोल रही हूं। मुझे भी

क्या तूं विधि का विधान बदल पायेगा

क्या तूं विधि का विधान बदल पायेगा --------------------------------------------- क्या मिलेगा तुम्हे, मुझसे मुझे छीनकर मांगके देख लेना,तुमको मिल जायेगा। जो नफरत पाल रखा है तुमने मेरे लिए वही तुम्हारे और करीब मुझे ले जायेगा। साथ रहकर क्यों धोखा कर में लगे हो एकदिन वही धोखा,तुझे मिल जायेगा। मुझे गिराने के लिए तुम कितना गिरोगे मुझे गिराकर तुमको क्या मिल जायेगा। जो बात हमारे मुकद्दर में लिखी गई है क्या तूं विधि का विधान बदल पायेगा। मेरा क्या बिगाड़ोगे मैं कुछ भी नहीं हूं हर बार तेरा दांव तुम्ही पे चल जायेगा। चोट खाते-खाते आदत सी पड़ गई है बार-बार मेरा ढ़ाल कोई बन जायेगा। मैं तिनका नहीं कि फूंक से उड़ जाऊं मैं हवा हूं ,तुम्ही बता क्या कर पायेगा। ------------------- @राम बहादुर राय भरौली,बलिया,उत्तर प्रदेश

पहाड़ों से नीचे गिरकर भी बहता हूं

पहाड़ों से नीचे गिरकर भी बहता हूं ------------------------------------------ उसने मुझसे पूछा, खुश रहते हो कैसे तेरे पास कुछ नहीं फिर रहते हो कैसे। मैं उसे अपना गिरा, मकां दिखा दिया एक टूटी चारपाई कम्बल दिखा दिया। उसने मुझसे पूछा ,तुम खाते क्या हो तुम्हारै पास तो धन-सम्पदा भी नहीं। मैंने अपना खाली बर्तन दिखा दिया खुश रहने वाला आइना दिखा दिया। फिर मैं बताया नफरत ,गम खाता हूं दोस्ती निभाता, दुश्मनी खा जाता हूं। मैं बड़ों-बड़ों के सानिध्य में रहता हूं दिन को रात कहते,मैं रात कहता हूं। मुझे मान-सम्मान से मतलब नहीं है उनकी नजर में,मैं कोई आदमी नहीं। तो मैं जी लेता हूं पशु-पक्षियों जैसे उड़ लेता हूं मन में पंक्षियों के जैसे। पर्वतों से नीचे गिरकर भी बहता हूं खाके ठोकरें भी झरने सा निर्मल हूं। सोच सकोगे कि खुश रहता हूं कैसे पीता हूं हलाहल को अमृत के जैसे। अपना समझ के ठोकरें खाता रोज फोड़ते हैं रोज ठीकरे,पत्थर हूं जैसे। --------------------- रचना स्वरचित और मौलिक @सर्वाधिकार सुरक्षित राम बहादुर राय भरौली,बलिया,उत्तर प्रदेश @followers

उबाल,उबुद्ध,उबोधक,उमासुत,उमेश,नहीं है

उबाल, उबुद्ध ,उबोधक ,उमासुत, उमेश नहीं है! --------------------------------------------------------- उद्देश्य, उदंत ,उद्धस ,उद्देश्यहीन ,उद्भभ्ररान्ति है उन्नत,उन्नतता, उन्नत, भाल, उदबुद्ध,उद्बुजन है! उपच्छद,उपजीवी ,उपजापित,उपत्यका,उन्मद है उन्मादिनी,उन्मादग्रस्त ,उन्मुक्त,उद्भ्रांति,उद्वेग है! उत्तल,उत्तानित,उतुंग, उत्तेजित,उत्वरण,उत्पथ है उतंक,उत्तंभ,उतंभक,उत्तंस,उत्तट,उदयी,उदान है! उपपति,उपभुक्त,उपमार्ग,उपमार्थ,उपाड़,उपेत है उपहारी ,उपस्कर,उपहृत ,उपाधित ,उर ,उबुद्ध है। --------------------- रचना स्वरचित और मौलिक @सर्वाधिकार सुरक्षित राम बहादुर राय भरौली,बलिया,उत्तर प्रदेश @followers

निश्छल के संग भगवान होते हैं

निश्छल के संग भगवान होते हैं -------------------------------------- मैं तो रुक-रूक कर चल रहा था वो कुछ जल-जलके रुक रहा था। लीक तो परम्पराओं ने लगाई थी उसे अपना बताकर रोक रहा था। जब कुछ ठीक से चलने लगा था वह मुझे धीरे-धीरे खींच रहा था। मैं जैसे-जैसे आगे बढ़ने लगा था वो कुत्सित चेहरा दिखा रहा था। जब मैं खूब ठीक से चल रहा था वह धू-धू कर स्वयं जल रहा था। मैं बार-बार ही उससे बच रहा था वो समझा मैं डरके भाग रहा था। मैं निश्छल रुप से काम रहा था वो हाथ धोके पीछे पड़ गया था। अब भी मैं लगातार चल रहा हूं वो जहां था वहीं के वहीं पड़ा है। जो किसी का कुछ बिगाड़ा नहीं उसके लिए तो भगवान खड़ा है। ----------------- रचना स्वरचित और मौलिक @सर्वाधिकार सुरक्षित राम बहादुर राय बलिया,उत्तर प्रदेश @followers

वाह आदमी की पराली जलाता है

आदमी की ही पराली जलाता है ---------------------------------------- किसान दिन-रात मेहनत करता है खून-पसीना से खेत को सींचता है! लहलहाती फसल से खुश होता है मगन होकर वह लोकगीत गाता है! फसल संग थपेड़े वह भी सहता है फसल के ओले स्वयं ओढ़ लेता है! सोते-जागते भी खेत ही सोचता है निश्छल हृदय से निर्मल सोचता है! हृदय तपाकर वह अन्न उपजाता है औने-पौने दाम पर गेहूं बेच देता है! ब्रोकर ही उसका गेहूं खरीद लेता है गोदाम भरकर गैम्बलिंग करता है! वह न खेती करता न धूप सहता है किसान की आत्मा बंधक बनाता है! दूसरा आंटा पिसकर पहुंचा देता है कोई दूसरा आता है रोटी बेलता है! अब तैयार रोटी सिर्फ वह खाता है वो कुछ नहीं करता घूमता रहता है! रोटी की खातिर आदमी पीसता है आदमी को ही गोल-झोल करता है! वह आदमी को काटता ,तापता है आदमी की पराली भी जलाता है! जिसको चाहता ,गोल कर देता है जिसे चाहता है,खरीद बेच देता है! यह आदमी जो ,आदमी जोतता है आदमी का खून पसीना सोखता है! किसान त्राहि-त्राहि करता रहता है वह सुख छीन,दुख बेचता रहता है! ----------------- रचना स्वरचित और मौलिक @सर्वाधिकार सुरक्षित राम बहादुर रा

करोड़न भोजपुरियन के आसा हवुए भासा भोजपुरी

करोड़न भोजपुरियन के आसा हवुए भासा भोजपुरी ---------------------------------------------------------------- मन पंछी बनिके उड़ रहल बा आसमान में धुंध छपले बा सब भोजपुरियन के चिन्ता बाटे भाषा भोजपुरी कहां बा। बहुते सुनल जाताटे कि विदेसवो में भोजपुरी बोलात बा फिजी,मारीसस से लंदन-अमेरिका तक बोलल जात बा। भोजपुरी सम्मेलन होता सरकार केहें बांहियो पूजात बा मगर विश्वविद्यालयन में जाके देखीं भोजपुरी कहंवा बा। चुनावे में भोजपुरी याद परेला पांच बरिस याद कहां बा मंसा ठीक नइखे ना, त भोजपुरिया सांसद का कम बा। भोजपुरिया माई के नावें से सब लोग कमातो-खात बा तबो भोजपुरी खातिर ललीपप काहें देखावल जात बा। कबो-कबो सुने के मिलेला भोजपुरी व्याकरण कहां बा कहीं-कहीं इहो सवाल बा भोजपुरी के लिपि कहंवा बा। लेकिन गलत सवाल , भोजपुरी साहित्य में सब कुछ बा तनि सोचीं देवनागरी लिपि कई भासा खातिर काहें बा। जब कई भासा खाती देवनागरी लिपि उनकर लिपि बा तब कैथी रहबे कइल त देवनागरी में दिक्कत कहां बा। करोड़न भोजपुरियन से खेलवाड़ काहें कइल जात बा पता करि लिहीं भोजपुरी कवनो दूसरा से कम कहां बा। एक से एक भोजपुरिया विद्वान क

तुम धन्य हो प्रिये!मैं भी हूं तेरे होने में

तुम धन्य हो प्रिये! मैं भी हूं तेरे होने में --------------------------------------------- न जाने क्या जादू है ,तुम्हारी आंखों में आग सुलग उठती है, दिल की राहों में! दिल के दरवाजे बन्द पड़े थे, सालों से मिथ्या अभिमान दूर किया,निगाहों ने! दबी ढ़की राखों में रूकी सी ,सांसों में मुझे तृप्त कर दिया तुम्हारी निगाहों ने! आंधी सी कौंध गयी, दिल की राहों में मन के हर कोने में झंकृत असर हुआ! जैसा होता होगा जादू-टोटके,टोने में भूधर संकल्पों के पत्ते जैसे डोल गये! रोम-रोम पुलकित हो उठे हर कोने में तुम धन्य हो प्रिये!मैं भी हूं तेरे होने में! तेरा होना मेरे लिए नहीं है मुझे होने में तूं अगर नहीं ,तो तूं है मेरे हर कोने में! न जाने कैसा जादू है तुम्हारी आंखों में देखूं तो मर जाऊं न देखूं तो पागल सा! मैं यायावर बना फिरू तुम्हारी आहों में तुम धन्य हो प्रिये ! मैं भी हूं तेरे होने में! ------------------ रचना स्वरचित और मौलिक @सर्वाधिकार सुरक्षित।। राम बहादुर राय भरौली बलिया उत्तरप्रदेश @followers

हर फलसफे पर रहता वक़्त का तकाजा है

हर फ़लसफे पर रहता वक़्त का तकाजा है ----------------------------------------------------- वक़्त भी क्या बला है, वक़्त से पहले क्या है हर फ़लसफ़े पर रहता वक़्त का ही तकाज़ा। ज़नाब के क्या कहने बार-बार शुक्रिया करते वे देख मुस्कुराते,हम मोहब्बत समझ जाते हैं। हमें वक्त का इल्म न था मुस्कान भी कुटिल वक़्त ऐसा था उनका कि सबसे बातें करते हैं। काम निकल गया तो वो सबको भूल जाते हैं जब तारीफों के पुल बांधे ,वे खुश हो जाते हैं। वो कुछ कहते हम सहते ,मजबूरी में हंस देते बड़ों-बड़ों को देखा झोपड़ी में मिलने जाते हैं। ये वक़्त की बात है सूरमा भी बिलबिलाते हैं अपना काम करते रहना ,सबके दिन आते हैं। लगे रहें जो काम में बेवक्त ताले खुल जाते हैं वक्त का भी वक़्त है,तो सबका वक्त आता है। वक़्त ही इंसान के हालात बनाता बिगाड़ता वक़्त सुधरते ही, सब कुछ ठीक हो जाता है। ---------- रचना स्वरचित एवं मौलिक @सर्वाधिकार सुरक्षित।। राम बहादुर राय भरौली ,बलिया ,उत्तरप्रदेश @followers

मुश्किल से पाया हूं,तुम्हे खोने से डरता हूं

मुश्किल से पाया है,तुम्हें खोने से डरता हूं --------------------------------------------------- स्व में रीत कर ,तेरे छूने से ही रोज़ भरता हूं मुश्किल से पाया है ,तुम्हें खोने से डरता हूं! शिद्दत से मन के आईने को साफ रखता हूं तेरे मिलने की उम्मीद में बनता हूं संवरता हूं! अब मेरे अपने भी तो बड़ी हैरत से देखते हैं जब चुपचाप सीढ़ियां चढ़ता और उतरता हूं! पेन की स्याही सा जब कागज़ पर फैलता हूं शायद हर बार तेरा चेहरा बन उभरता हूं! इल्म है तू यहीं है मगर न जाने खौफ क्यूं है बेवजह कमरे से तेरे बार-बार मैं गुजरता हूं! मुझे नहीं था पता लेकिन दोस्त सब कहते हैं मेरी आंखों में दिखता प्यार ,तुमसे करता हूं! चाहे कोई कुछ भी कहे मैं प्यार का सागर हूं लापरवाही में भी बेपनाह मोहब्बत करता हूं। ---------------- रचना स्वरचित एवं मौलिक @सर्वाधिकार सुरक्षित।। राम बहादुर राय बलिया,उत्तर प्रदेश @followers

आइल फागुनी बहार लूटऽ लूटऽ लहार

चार दिन के जिनिगी जनि करऽ बिगार ----------------------------------------------- आइल फागुनी बहार लूटऽ लूटऽ लहार कबो ठंढ़ा,कबो गरम,कबो परेला फुहार। तन-मन में होखी जेवन तोहार कुविचार होली खेलि खतम करिहऽ आपन गुबार। बरिस-बरिस पर आवेला रंग के तिहुवार देश-विदेश से आवेले लोग घरवा-दुवार। सबसे पहिले करिहऽ भउजी के तइयार फिर छोटका बचवन से रखिहऽ दुलार। केतनो कइले होखबऽ केहू से तूं बिगार गोड़ छू के रंग अबीर लगइहऽ एक बार। पहिले खिसियइहन फिर करिहन दुलार उहो सोचते होइहन कवन दुश्मनी हमार। सबके मनाइके एकही बनइहऽ परिवार रंग बरिसइहऽ,बंटिहऽ रंग भरि के प्यार। आइल फागुनी बहार लूटऽ लूटऽ लहार दुख-दलिदर के जरा दिहऽ अबकी बार। चार दिन के जिनिगी,जनि करऽ बिगार कहसु रामबहादुर राय खूबे लूटऽ लहार। आइल बाटे फगुनवा में लहरा लहरदार लूटऽ लूटऽ आइ गइल बा बसंती बहार। ------------------- रचना स्वरचित,मौलिक @सर्वाधिकार सुरक्षित। । राम बहादुर राय बलिया,उत्तर प्रदेश @followers

चलऽ उङि चलऽ दूर देशे चिरई

उड़ि चलऽ दूर देश में चिरइया हो ---------------------------------------- उड़ि चलऽ खोंतवा में चिरइया हो बान सभे सधलहीं बा तोहके जाल में फंसावे के फेरा बा माया चाल चलले बा बहुरूपिया बनल बाटे मुदइया हो गड़ांसी खूब पजवले बा अइसन दाना से नीक फांकिये बा जरूरी जान बचावले बा बाज बनिके बइठल संगियवा हो चिन्हाइल बड़ कठिने बा उड़ि चलऽ खोंतवा में चिरइया हो फंसावहीं वाला सभे बा केकर करबू भरोसा, कलयुग बा आपन लोगवे दुश्मन बा चलऽ चलऽ जंगल के ओरिया हो नीमन सबसे ओहिजे बा उड़ि चलऽ दूर देश में चिरइया हो जियरा अफतरे परल बा ------------------- रचना स्वरचित,मौलिक @सर्वाधिकार सुरक्षित राम बहादुर राय बलिया,उत्तर प्रदेश @followers

चढ़ते फगुनवा सयान भइल दिनवा

चढ़ते फगुनवा सयान भइल दिनवा ------------------------------------------- चढ़ते फगुनवा सयान भइल दिनवा बिहंसल किरिनिया, होई गइल भोर। बहुत दिन सहनी अब बेधता देहिंया दिनवा कटि जाला जागी भर रतिया। कुछू पता नइखे दोचित बाटे मनवा टुकुर-टुकुर तिकवतानी ए सजनवा। उड़ि-उड़ि बइठे अंटरिया पर कागवा हमरो जिनिगिया में आवता अंजोर। झपर झपर लहरे गंहू-जौ के बलिया टुकुर-टुकुर ताकेला रहिला चहुंओर।  सुर सुर  सुरकेला  मसूरी के पकलकी  खेत के डंड़ारी मारे  छाकुन भरि जोर। हाथ में  लेके खाले  चना के कचरिया बगिया में  होरहा फूंकाला चारू ओर। सरसों के मोतिया  उपरे बा उतराइल  ओकरे नीचवा  तीसी हलरे झकझोर। अनजो गोटाइल  आइल शुभ दिनवा घर-परिवार  खुशी से भइल सराबोर। फाग गवाये  लगल  डफ बाजे लगल  सबकर मन  रंग-बिरंगी होखे लागल। लड़िका-सयानो  के फगुवाइल मनवा जियरा पर केहू के नइखे चलत जोर।                --------------------- रचना स्वरचित,मौलिक  @सर्वाधिकार सुरक्षित  राम बहादुर राय  बलिया,उत्तर प्रदेश  @followers

आखिर बड़ा आदमी कौन???

आखिर बड़ा आदमी है कौन?? -------------------------------------- बड़ा आदमी बनने की सबमें यहां होड़ मची हुई है। आखिर बड़ा आदमी है कौन ,क्या होता है मानदंड। क्या पैसे से बड़ा होता है या ओहदे से बड़ा होता है। नहीं साहब !! दिलो-दिमाग से बड़ा होता है आदमी। सब कुछ होने से बड़ा नहीं होता,सबके पास कुछ है लेकिन बड़ा आदमी वह होगा जो बड़ा लगे ही नहीं। बड़े होने का आभास किसी को होने ही नहीं देता है क्या छोटा क्या बड़ा होता है इससे इत्तेफाक न रखे। दुख-सुख में सबके साथ रहे,अभिमान नहीं करता है मौसम की तरह व्यवहार न बदले,सदाबहार रहता है। हर परिस्थिति,हर समाज में रहता,भेद नहीं करता है किसी की कमी का एहसास नहीं होने दे वही बड़ा है। -------------------- रचना स्वरचित एवं मौलिक @सर्वाधिकार सुरक्षित।। राम बहादुर राय भरौली,बलिया,उत्तरप्रदेश @followers

सांच बोलला पर झूठ मानल जाता

सांचो बोलबऽ त झूठ मानल जाता ------------------------------------------- एहघरी के कुछ अलगे कहानी बाटे कुछू नइखे,कहे भरल चुहानी बाटे। केहू के आसमान पर रखले बाड़न केहू के जानिये के चिन्हत नइखन। जगहे-जगह त शहर बस रहल बाटे अन्न कइसे मिली ई के सोचत बाटे। जे तनिसे टुकटुकाइल शहर गइल जेके अलम नइखे उहे खेती कइल। एहघरी के एगो अलगे कहानी बाटे गहिरा लउकेला,छिछिल पानी बाटे। पनही पहिर भइल चतुर चाल्हांक खेती करे उनकर के बाटे रखवार। जे कुछवू नइखे उहे सब कुछ बाटे जे मालिक रहल ,गइल घास काटे। सांचो बोलबऽ त झूठ मानल जाता दिन के रात कहऽ उहे पूजल जाता। नीमन के बाउर बनावल जात बाटे अब कइसे बचबऽ सांप संगवे बाटे। ----------------- रचना स्वरचित,मौलिक @सर्वाधिकार सुरक्षित राम बहादुर राय बलिया ,उत्तर प्रदेश @followers

वह सबको अपना खास कहता है

वो सबको अपना खास कहता है --------------------------------------- ये जो इश्तिहारों में दिख रहा है वह कोई इश्तिहार नहीं है! जो बात अपने मुंह से कह रहा है वो तो कोई बात भी नहीं है! वह जो कुछ नहीं भी कह रहा है उसमें भी कोई बात नहीं है! यह तो उसके दरम्यान की बात है वो बात कह ही नहीं रहा है! हम अपने से ही मानकर बैठे हैं वो तो इसे सोचता ही नहीं है! उसके भरोसे पर भरोसा रखे हैं वो इसे कब का बेच चुका है! वो सबको अपना खास कहता है वो खास समझता ही नहीं है! वह हर बात चुनावी ही करता है वो तो कोई नेता भी नहीं है! वह तो एक बड़ा व्यापार करता है वो सिर्फ बेचना ही जानता है! हम उसे बिना समझे सब दे देते हैं इसे भी करिश्मा समझता है! ----------------- रचना स्वरचित और मौलिक @सर्वाधिकार सुरक्षित। । राम बहादुर राय बलिया,उत्तर प्रदेश @followers

आइल फागुन के महिनवा हो. ..

आइल फागुन के महिनवन हो..... ----------------------------------------------- आइल फागुन के महिनवा हो,मौसम बइमान भइल जाता टह-टह उगल फुलवा देखत,कलियो के मन खिलल जाता। अइसन बुझाता कि भागल दुखवा,सुख के दिन अब आइल मुरझाइल रहत रहल मनवा ,बुझाता दुख के दिन ओराइल। हलुक भइल जाता देहिंया हो , मनवा बेकहल भइल जाता जेने-जेने तिकवत बानी हम,त लाल-पियर-हरियर बुझाता। अब त आमवो मोजराये लागल ,महुववो कोंचियाये लागल कोइलर के तान सुनिके,अब लगनियो के दिन रखाये लागल। अइसन बा फागुन के महिनवा हो,मौसम के रंग चढ़ल जाता मुंह में दांत ना तबो बुझात नइखे,बुढ़वो जवान भइल जाता। आइल फागुन के महिनवा हो,मौसम बइमान भइल जाता टह-टह उगल फुलवा देखत,कलियो के मन खिलल जाता। ------------------------- रचना स्वरचित,मौलिक @सर्वाधिकार सुरक्षित। । राम बहादुर राय बलिया,उत्तर प्रदेश @followers

उङे लागल रंग अउरी गुलाल

उड़े लागल रंग अउरी गुलाल ------------------------------------ उड़े लागल रंग अउरी गुलाल फागुन में फगुवा गावे गोरिया! आमवा के मोजरा मोजराइल ओहि में भंवर बाटे घोरियाइल! कोइलरि के गाल भइल लाल महुओ के चढ़ल बा जवनिया! हंसत खेलत खेले सब रंगवा सब रंग से रंगात रहल मनवा! बन्हल पिरितिया डाले-डाल अंगना में बरिसल सनेहिया! सबकर मन के मइल धोवाव हुलसल मनवा भइल पोलाव! उड़े लागल रंग अउरी गुलाल फागुन में फगुवा गावे गोरिया! ----------------- रचना स्वरचित,मौलिक @सर्वाधिकार सुरक्षित। । राम बहादुर राय भरौली,बलिया,उत्तर प्रदेश @followers

चढ़ी गइल फागुन के खुमार

चढ़ि गइल फागुन के खुमार ---------------------------------- आइल आइल बसन्ती बयार ए बाबू ! तनी बचि के रहिहऽ रंगबिरंगी बसन्त अब खिलल धरती के चुनर धानी मिलल! लागे लागल नीमन घर-दुवार ए बाबू फागुन के लूटऽ लहार! फूलवो रंगबिरंग के फुलाइल भंवरो के मनवा ललचाइल ! चढ़ि गइल फागुन के खुमार सुहावन लागे बसन्ती बहार! कोइलर गावेली होके उतान बीतल रतिया भइल बिहान! आइल आइल बसन्ती बयार ए बाबू तनि बचि के रहिहऽ ! ---------------- रचना स्वरचित,मौलिक @सर्वाधिकार सुरक्षित। । राम बहादुर राय बलिया,उत्तर प्रदेश @followers

कगवो के बोली सुहावन लागे

कगवो के बोलिया सुहावन लागे --------------------------------------- मन मोरा चहके तन मोरा बहके कगवो के बोलिया सुहावन लागे ! फुदुके छोटकी चिरइया अंगनवा बोलिया मिठाई नियन मीठ लागे ! कनखी पर ताकेली जब गोरिया कारी रतियो टह-टह अंजोर लागे ! चैन ना आवे जब नाहीं लउकस हंसत खेलत हियरा अन्हार लागे ! चढ़ते फगुनवा फूटल पचखिया भंवरवो के मनवा बेकल लागे ! पुलुईं के पंतिया चढ़त फगुनहटा सभ लोग के मनवा हड़होर मारे ! झपरझपर करे खेत में बलिया सोनवा के रंग नियन सुघर लागे ! जब कुहू-कुहू बोले कोइलिया मोर मनवा के पंछी हिलोर मारे ! ----------------- रचना स्वरचित, मौलिक @सर्वाधिकार सुरक्षित। । राम बहादुर राय बलिया,उत्तर प्रदेश

अपने दुश्मन बरियार हो गइल

आपने दुश्मन बरियार हो गइल!!! ----------------------------------------- चलऽ उठऽ अब बिहान हो गइल जे आपन रहल उ आन हो गइल। बूझलऽ मुर्गा बोली त बिहान होई सूतले रह गइलऽ हो गइल बिहान। नेकिये करे में जिनिगी बीत गइल सूद त सूद सब मूरवो चलि गइल। सबकर काम तूं बनवलहीं बाड़ऽ जे भी कुछो मांगल दिहले बाड़ऽ। ढ़ेर नीमनो भइल काल हो गइल उ तोहरे खातिर सवाल हो गइल। सुनले बानी नीक के नीके होला नीमन कइनी बुरा हाल हो गइल। का कहीं हमरा से नेकिये भइल जे हमसे से मिलल गुरूवे भइल। जब-जब हमरो काम अंझुराइल हर गांठन में सब अपने बुझाइल। वकत पर दुश्मने हमार हो गइल आपने दुश्मन,बरियार हो गइल।                ------------------ रचना स्वरचित,मौलिक  @सर्वाधिकार सुरक्षित। । राम बहादुर राय  बलिया,उत्तर प्रदेश  @followers