पहाड़ों से नीचे गिरकर भी बहता हूं
पहाड़ों से नीचे गिरकर भी बहता हूं
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उसने मुझसे पूछा, खुश रहते हो कैसे
तेरे पास कुछ नहीं फिर रहते हो कैसे।
मैं उसे अपना गिरा, मकां दिखा दिया
एक टूटी चारपाई कम्बल दिखा दिया।
उसने मुझसे पूछा ,तुम खाते क्या हो
तुम्हारै पास तो धन-सम्पदा भी नहीं।
मैंने अपना खाली बर्तन दिखा दिया
खुश रहने वाला आइना दिखा दिया।
फिर मैं बताया नफरत ,गम खाता हूं
दोस्ती निभाता, दुश्मनी खा जाता हूं।
मैं बड़ों-बड़ों के सानिध्य में रहता हूं
दिन को रात कहते,मैं रात कहता हूं।
मुझे मान-सम्मान से मतलब नहीं है
उनकी नजर में,मैं कोई आदमी नहीं।
तो मैं जी लेता हूं पशु-पक्षियों जैसे
उड़ लेता हूं मन में पंक्षियों के जैसे।
पर्वतों से नीचे गिरकर भी बहता हूं
खाके ठोकरें भी झरने सा निर्मल हूं।
सोच सकोगे कि खुश रहता हूं कैसे
पीता हूं हलाहल को अमृत के जैसे।
अपना समझ के ठोकरें खाता रोज
फोड़ते हैं रोज ठीकरे,पत्थर हूं जैसे।
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रचना स्वरचित और मौलिक
@सर्वाधिकार सुरक्षित
राम बहादुर राय
भरौली,बलिया,उत्तर प्रदेश
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