एक दिन, दिन जैसे ढ़ल जाना है
एक दिन,दिन जैसे ढ़ल जाना है! --------------------------------------- बड़े होने पर क्यों इतराता है आखिर तुझे भी नीचे ही आना है। परिंदा भी आसमा में मड़राता है वह भी जमीन पर ही तो आता है। जिस धन दौलत का घमंड तुझे है कौन है जो उसे लेकर जाता है। धन-दौलत एक माया का खेल है सबको एक ही जगह तो जाना है। कितने भी उपर उठ जाओगे तुम एक दिन मिट्टी में ही मिल जाओगे। यहां कितने आये और चले गए सब कुछ तो यहीं पर छोड़ जाना है। कौन जानता है क्या होगा आगे मैं - मैं, तूं -तूं का क्या फ़साना है। ऐ परिंदे ! इतना गुरूर मत करना साथ तो तुम्हारा कर्म ही जाना है। बहुत देखे हैं सिकन्दर हमने यहां मुठ्ठी खोल, यादें लेकर जाना है। धन-दौलत, रिश्ते-नाते बहाना हैं प्रभु को हमें माया में फसाना है। सत्य सनातन के रास्ते पर चलकर आखिरी मंजिल मोक्ष ही पाना है। तुम धरती पर या आसमान में रहो एक दिन, दिन जैसे ढ़ल जाना है। -------------- राम बहादुर राय भरौली बलिया उत्तरप्रदेश