वाह आदमी की पराली जलाता है
आदमी की ही पराली जलाता है
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किसान दिन-रात मेहनत करता है
खून-पसीना से खेत को सींचता है!
लहलहाती फसल से खुश होता है
मगन होकर वह लोकगीत गाता है!
फसल संग थपेड़े वह भी सहता है
फसल के ओले स्वयं ओढ़ लेता है!
सोते-जागते भी खेत ही सोचता है
निश्छल हृदय से निर्मल सोचता है!
हृदय तपाकर वह अन्न उपजाता है
औने-पौने दाम पर गेहूं बेच देता है!
ब्रोकर ही उसका गेहूं खरीद लेता है
गोदाम भरकर गैम्बलिंग करता है!
वह न खेती करता न धूप सहता है
किसान की आत्मा बंधक बनाता है!
दूसरा आंटा पिसकर पहुंचा देता है
कोई दूसरा आता है रोटी बेलता है!
अब तैयार रोटी सिर्फ वह खाता है
वो कुछ नहीं करता घूमता रहता है!
रोटी की खातिर आदमी पीसता है
आदमी को ही गोल-झोल करता है!
वह आदमी को काटता ,तापता है
आदमी की पराली भी जलाता है!
जिसको चाहता ,गोल कर देता है
जिसे चाहता है,खरीद बेच देता है!
यह आदमी जो ,आदमी जोतता है
आदमी का खून पसीना सोखता है!
किसान त्राहि-त्राहि करता रहता है
वह सुख छीन,दुख बेचता रहता है!
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रचना स्वरचित और मौलिक
@सर्वाधिकार सुरक्षित
राम बहादुर राय
बलिया,उत्तर प्रदेश
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