आखिर तुम मौन क्यूं हो
आखिर तुम मौन क्यों हो
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महसूस होते स्पंदित एहसास
कोमल हृदय में बार-बार!
खड़े अपलक निहारते तुम
झंकृत कर रहे हो बार-बार!
बढ़ा रही है अदृश्य बेचैनी
बगलें झांकती हूं बार-बार!
हवा के झोंके से लगते हुए
टकराते हो क्यों बार-बार!
वर्षों के इंतजार का प्रतिफल
मिलना चाहे कोई हर बार!
लगता है सदियों बिछुड़े हो
प्रेम की लिए अधूरी प्यास!
तृष्णा बन रही है मृगतृष्णा
निर्गुण नहीं मुझे सगुण चाहिए!
तुम कुछ बोलते क्यूं नहीं हो
मैं क्या करू तुम्हारे लिए!
उस जन्म में भी ऐसे ही थे
तड़प की चुभन को सहे होगे!
क्यूं मौन होते बार-बार
मुझ पर क्या बीती,सोचा है!
सदियों से तुम्हारा इंतज़ार
तोड़ना होगा मौन इस बार!
आखिर तुम मौन ही क्यूं हो
प्रेम करना गुनाह तो नहीं!
काट दो संत्रास को इस बार
अब न सताओ मेरे मोहन!
तेरा हर एहसास मुझे है
चलो मैं हारी फिर इस बार!
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रचना स्वरचित एवं मौलिक
@सर्वाधिकार सुरक्षित।।
राम बहादुर राय
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