अच्छा बुरा
अच्छा भी बुरा लगने लगता है
ग़लत भी सही लगने लगता है
जो काम मना किया जाता है
आदमी तो वही करने लगता है
किसी का भविष्य संवर जाता है
फिर तो शहर दुःखी हो जाता है
उसकी सारी बातें बुरी लगती है
वह सभी को खटकने लगता है
"अकेला" गिरकर भी हंस देता है
सबल देख कर दुखी हो जाता है
हो जाता जो फ़ोबिया का शिकार
लहू का रंग भी उसे हरा दिखता है
बौद्धिकता भी इस कदर बढ़ गई है
भाईचारा भी गणित लगने लगता है
इतना स्वार्थ घर कर गया है हममें
एक चेहरे में दो चेहरा नजर आता है
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रचना स्वरचित,मौलिक एवं अप्रकाशित
@सर्वाधिकार सुरक्षित
राम बहादुर राय "अकेला"
भरौली नरहीं बलिया उत्तरप्रदेश
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