फिर भी नहीं सुधरते हम
फिर भी नहीं सुधरते हम
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रेत सी ढ़हती ये दुनिया
फिर भी मशरुफ़ हैं हम।।
खुले हाथों से समेटने को
आखिर क्यूं मजबूर हैं हम
जाना तो सबको वहीं है
तो समझते क्यूं नहीं हम।।
उस धन संचय का क्या
जिसे देख देख जिये हम।।
धन तो हमारा वही होता है
जिसका उपभोग करें हम।।
रेत में कैसा भी घर बना लें
बिना प्रयास ढह जाना है।।
सामने ही ढेर होते देखकर
अमरत्व का सोचते हैं हम।।
सब छोड़कर चले जाना है
फिर भी नहीं सुधरते हम।
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राम बहादुर राय
भरौली बलिया उत्तरप्रदेश
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