केश भी अब कितना सहे
केश भी अब कितना सहे
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केश ने केस करने को कहा
मैंने कवियों का बहुत सहा।
जिसे भी देखो मुझे ही बोलता
मैंने किसी को कुछ नहीं कहा।
बिना कहे ही मेरे पीछे सब पड़े
किसी ने काली तक घटा कहा।
बर्दाश्त करने की भी सीमा है
जिस पर हूं वो कुछ नहीं कहा।
हे पुरुष मुझसे क्या है दुश्मनी
स्त्री के बहाने मैंने कितना सहा।
फिर स्त्री-पुरुष भी मिल जाते
फिर तो मैं अब मैं भी नहीं रहा।
मेरे सहारे सब कुछ पा जाते
उसमें मेरा कुछ भी नहीं रहा??
तुम्हें आपस में प्रेम ही करना है
फिर मुझे सबने दोषी क्यूं कहा।
कितनी व्याख्या की गई है मेरी
पूछा मैंने कितना कुछ है सहा।
सोचता हूं अब कितना सहूं मैं
अब मैं भी पहले सा नहीं रहा।
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रचना स्वरचित एवं मौलिक
@सर्वाधिकार सुरक्षित।।
राम बहादुर राय
भरौली, बलिया, उत्तरप्रदेश
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