गाँव के थाती-श्रृंखला-17
गाँव के थाती-श्रृंखला-17
--------------------------------
सावन-भादो के महीना बरसात से लबालब भरल रहल करे..हम बहुत पहिले के बात करतानी...हमार आंखों देखी जवन जियले बानी..हम एगो सीमांत कृषक के लड़िका बानी खेती बारी नामे खातिर बाटे लेकिन मजबूरी ई रहे कि मजदूरी वगैरह कर ना सकत रहनीं आ खेती से काम चलबे ना करे ओहि में घर-दुवार भी माटी के रहल बइठका के नाम पर एगो लमहर पलानी कुश-राढ़ी-पतलो ,उखी के झूर, हरेठा जवन रहर-अरहर के ढ़ांढ़ के टाटी..बांस, आम के गांछ के छटकल डाढ़ि के थुन्हीं-थेघुनी लगावल रहत रहे...कबो-कबो त अइसन होखे कि थुन्हीं लागले रहे आ मड़ई उलटि जाव कारन कि थुन्हीं के हिस्सा जमीन में गाड़ल रहे ओके भीतरे-भीतर देंवका महाराज लोग चट कर जात रहलन आ उपर से सोगहग नीमने लउकत रहे उहे दशा एहघरी के अदिमिन के बाटे लेकिन लोगन के कमी ना रहे तुरन्त एगो चलावा पर सैकड़ जुटि जासु..मड़ई हाथे-पाथे लागि के सब उठवा देत रहे...केहू गड़हा खने केहू जेंवर बरे केहू माटी निकाले ...माने बुझइबे ना करे कि केकर मड़ई हवुए।
जब अस्हार के बुनि बाजे तबे सब लोग तइयारी शुरु कर देत रहल कि अब सावन-भादो आवे वाला बाटे ओकरा खातिर अदिमी होखे चाहे पशु-पक्षी आ चवुवन के इतजाम कइल जात रहल...जेकरा खातिर भर सावन-भादो खातिर लवना-लक्कड़,गोंइठा,करसी घास-भूसा-भूसी,खुद्दी, खरी अदिमिन खातिर अंचार अमावट, अदवुरी....वगैरह वगैरह के सब केहू.,भूजा..सब अपन खजाना भर लेत रहे काहें से कि हमार बाबा साहब बसाउ राय नाम रहे उनकर....नाम के अनुसार कामो रहे जंहवा रहसु ओहिजा कुछवू के कमिये ना होखत रहल..बहुत तेज बुद्धि के रहलन,......
! सावन में सुग्गा उपास करेला !
लगभग सबकर घर-दुवार लगभग-लगभग माटी के देवाल-खपड़ा-नरिया से छावल-छोपल रहे केहू-केहू के घर के देवाल ईंटा के रहल कुछ लोग जवन अपना के बड़कवा कहसु त बड़ बने खातिर खेत पर करजा..रेहन रखि के...रेहन मतलब अगर एक बिगहा खेत पर जवन भी करजा लियाव त ओकर लिखा-पढ़ी हो जाव आ ई रहे कि जब तक करजा ना लवटि तब तक खेत महाजन जेती-बोई-काटी माने खेत ओकरे रही...ओहू से ढ़ेर केहू लकराइल रहे त मोहायदा लिखाव जवना में कर लवटावे के समय- सीमा रहे हालांकि लमहर समय खातिर लिखाव 8-10-15 बरिस...एतना समय में करजा ना लवटल तब खेत करजा देबे वाला के लिखा जात रहल ई..बहुत खतरनाक साबित होखत रहे,तब उ बड़का बने वाला लोग एहितरे के करजा लेके दुतल्ला कोठी-कोठिला बनवले रहसु जा घर-दुवार दुवार देखला पर बुझा जात रहल कि बबुआन होइहन...एहि बबुवानी में बहुत जना के खेत बिका गइल आ जे हाथ दबा के चलल उ अपन पुरखा-पुरनियन के धरोहर बचा लिहलन जा ।
ओह समय सरेह में गइला पर सांवां-टांगुन खूब लहरत लउके..आ अगहनिया, बाज़ड़ा उरदी, मूंग, कांकर जवना के डाभ,फूट खाके सब अघा जात रहलें..मकई के खेत त पूछहीं के ना रहल..सब मचान पर बइठले खूब कड़े-कड़े करत रहे..आ मूस, खरगोश, बमबिलार, खेंखर, छछूनर, हिरन,लिलगाइ, सांप, बिच्छू,धामिन, बिलगोहि सियार-माकूर वगैरह भी खूब मजे में छानत-फूंकत रहत रहलन..खेतिये मुख्य धन्धा रहल आ लखत के लखत खेती के संगे-संगे पेंड़ पवधन के त भंडारे रहल।
जब सावन-भादो में छप्पन कोटि के बरखा होखे लागे तब सब अउंजा जात रहे...कबो-कबो अठवरियन मूसलाधार बरखा लगातार होखते रहि जाव ओहिघरी लोगन के दिक्कत होखे घर-दुवार त पांकी-कींच से हड़बड़-हंचाड़ हो जात रहल, लोगन के पानी-पांकी में चलला से गोड़ सरि जात रहल। खाये-पिये के सामान घर में अछइत रहे लेकिन बनल बड़ा कठिन रहे...मारे झटास तब केतनो केवाड़ी बन करे भीतर पानी ढ़ुकिये जात रहे आ पानी काछत-काछत मन उजबुजा जात रहल...उपर से भर आंगन केंचुवन के बटोर हो जात रहल लागे कि एह लोगन के नेवता देके भोज खाये खातिर केहू बोलवले बा....ई लोग के अगुवानी करे खातिर मेंढ़क बाबू, नेवुर महाराज, बिलाई महारानी, बिसकुतिया, बिसकोपड़ा लोग चारो ओर रहि-रहि के निरेखत लउकसु आ कबो-कबो आपुसे में भिड़ंत त मान-मनुवल होखे लागे त ई लागे कि एहि लोग के घर-दुवार हवुए हमनी के एह लोगन के किरायेदार बानी जा।
गाँव-घर के बहरी सिवान में निकलला पर झींगुर, उचुरुंग के समवेत स्वर में गायन त कहीं बेंगुचा भाई जी टर टीं टर..ट्रोंका-टोंक-टोंक टर्र टर्र टीं के आवाज सुने के मिले आ पानी के पवनार लागल रहे..गड़हा-गुड़ही, ताल-तलैया, नदी-नाला, पोखर-पोखरी से पानी उपरवंछि के बहत रहे ओहि में मछरी-झींगा मारे वालन के खूब लहल रहल. भर झोरी मछरी लेके घरे जात रहलल सब...फसल केहू के खूब सुघर करंगा होखे त केहू के पानी में डूबला से लागे कि पूरा फसल के दरकचि के पियरी धई लिहले बाटे।
जब झमाझम बरसात होखे लागु..पूरा अन्हारी-मसानी घेरले लागे कि बरिया एकोरा लटकल आवत हवुए त कहीं कड़कत,गरजत, तड़पत जीव डेरवावत बिजुरी से सब केहू धड़धियवले जहंवा लुकाये के ठगो मिले लुकाये लागे..गाय-भंइस सब अपन पगहा खूंटा पर अपन पागुर बन्द करके जान बचावे खातिर चौहद्दी में माके लागे छोट लैरू, बाछी, बछरू अपना मलिकार ओरिया मुंह-पोंछ उपर उचका के मां--मां बोले लागे तब सब समझि लेबे कि घर में एहू लोग के लुलवावल जाव।
अब भादो-भदवारी के महीना में सब चिरई-चुरूंग बेचारा अस पेंड़ के डाढ़ि पर कुछ अपना खोंता में से टुकुर-टुकुर ताकसु कि बरखा पटाव त चारा के कुछ इंतजाम बाल-बच्चन खातिर होखे लेकिन धुंआधार कबो मूसलाधार त कबो लागे कि बदरिये में छेद हो गइल बा....कबो त ई हम सुनि के हदऽस गइनी कि बादरे फाटि नू गइल..अब का होई बड़ा फेरा में परलीं त बाबूजी बतवलन कि बहुत तेज आ बड़का गो बूना बिना रुकले लगातार बरिसे लागेला त ओहिके कहल जाला कि बदरी फाटि गइल बा....जब तनी कम होखे लागे त सब फलगर बढ़ि के जल्दी काम निबटा लेत रहलन....सुग्गा ,चिरई वगैरह दाना-पानी खातिर खेतन में उतरि के एगो सांवा के प्रजाति बनइला घास सांई होखे तब ओकरे फर अपने खाके अउरी मुंह में लेके अपन पांखि झारत बच्चन खातिर ले जात रहलन जेकरा के खाके पक्षी लोगन के पेट कइसहूं जिये....कबो-कबो बरसात बन्द ना होखे तब उपासहूं भी रहे के परत रहे सबकरे के।
....क्रमश:----------
रचना स्वरचित अउरी मौलिक
@सर्वाधिकार सुरक्षित। ।
राम बहादुर राय
भरौली,बलिया,उत्तर प्रदेश
Comments
Post a Comment