गाँव के थाती-श्रृंखला-19

गाँव के थाती-श्रृंखला-19
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एगो समय रहल कि गांव के घर के आंगन में छान्हीं पर कुछ ना कुछ सब केहू बोवले रहे जवना में गंगवट माटी, गोबर के खाद डालल जात रहे...फसल एकदम करिया भंवरा अस करंगा बन्हले आवे लहलहात रहे...उहे फल-फूल,तरकारी, अनाज खाके सब अदिमियो लहलहात रहे..लहसत रहे।
अधिकतर अइसन हमरा लेखा गरीब परिवार के सवांग रहलन उ खाहीं-पिये के जोगाड़ बान्हे में अंझुराइल रहसु त..उनकर लड़िका-बच्चा केतरे पढ़सु....ओही में हमरा याद परता कि कातिक महिना में मोटहन अनाज, चना,मसूरी, लतरी...जौ-गोजई...सरसों,तीसी, बरे....बहुत कुछ बोवात रहे लेकिन सबकरा घरे रोज तरकारी..सब्जी के जोगाड़ ना बनि पावे त रोटी-अंचार,नून-तेल घंसल रोटी भा पियाज काटि के ओहमें तनी नून-सरसों तेल आ अंचार के मसाला मिला के खाये में जवन सवाद मिले उ मजा कुछवू में ना आयी...शरीर भी चंगा-निरोगित रहल करे सबकर..हालांकि ई गरीबन के भोजन के इंतजाम रहे...एगो अउरी इंतजाम झटपट वाला रहल...अरवा चाहे उसिना चावुर तसला में रिन्हात रहल काहें से कि कुकर चाहे कुकुर,गैस महाराज केहू के घर में घुसल ना रहलन तब जब भात पाकि जात रहे त माड़ पसवल जाव फिर अपने उंचा बारि वाली फूलहा थरिया में भर थरिया माड़-भात तनी नून लगाके आम चाहे मरिचा संगे खूब सरपटत रहीं जा...ढ़ेकारत चल देत रहे लोग...ओह भोजन के बहुत तथाकथित धनिक वर्ग खराब मानत रहे लेकिन आज डगडर साब केहें ओइसने बड़कवा लोग जाता त सलाह मिलता उहे खाये खातिर।
जब कातिक महीना में बावग हो जात रहल तब धरती में डालल बिया अंखुवा के पतई फेंके जवन दलहन होखे ओकरा में दूगो पतई अंकुरित होके निकलत रहे...धीर-धीरे महीना लागत-लागत बड़ हो जात रहे..मतलब कि अब साग लायक पवधा तइयार हो जात रहल... बस अब त जवन गरीब-गुरबा लोग रहलन उनकर जियका लउके लागे त ओह लोग के घर के लइकी-मेहरारू होत दुपहरी में साग खोटे खातिर धीरे-धीर अपना सखी सलेहर के संगे गोड़ दबले झुंड में निकलसु लोग....सूनसान धूप के दुपहरी में निकले के भी कारन ई रहे कि खेत के मलिकार लोग बड़ अदिमी रहलन जा त उ लोग छेछड़ लेखा हरदम खेत ना अगोरस थान धई के....सब खोटनिहार लोग जेतना मन करे खोटत रहे लोग।
लेकिन जे भी साग खोटे जात रहे त सबसे पहिले अपना-अपना हल्का में साग के देवी-देवता एगही रहलन....सब एक-एक मुठी साग के अगरासन ढ़ेलवा बाबा के चढ़ावत रहे..साग खोटे वाला लड़का-लड़की, बूढ़ केहू रहे आ सबसे बड़ बात ई रहे कि वोहिजा गजब के एकता रहे ना कवनो जाति-धर्म ना जमाता ना त कवनो तरह के भेदभाव रहे...हं खेत के मालिक सबकरा खातिर एगो डर के कारन रहलन जिनका के बाबू साहब कहल जाव आ उनहूं में जाति-धर्म विशेष ना रहल करे।
सब लोग सोगहग मोटरी के साग जवना में कुछ चना,मटर,खेसारी मतलब लतरी, बथुवा, तनी सरसो के पतई सब मिलावटी रहे....जब घरे पहुंचस लोग तब चेहरा पर एगो चमक आ जात रहे कि चलऽ आजु के काम त बनल...अब साग बनावे वाला भी एगही-दूगो घर में मेहरारू होखसु काहें से कि आजुओ साग सबके काटे ना आवेला.....अब साग के पहंसुल से काटल जाव फिर सिझा के कुछ देरी तक तोपि के रखाव ओकरे बाद नून -मरिचा,सरसों के सोन्ह तेल जवन बैल कोल्हू के एकदम सूचा रहत रहे आ कुछ साधु अस होखस घर-परिवार में तब उनकरी खातिर बिना लहसुन के पहिलहीं निकल दिहल जाव अब सागा एकदम हरियर लहसुन काटि के मिला दिहल जाव ....सबका मुंह में से लार टपके लागे...अब देशी मोटका अनाज जवना में अगहनिया,बाजरा, मकई के आंटा के मोटे-मोटे गोइंठा के आगी से मोटहन तावा पर के सेंकल गरम-गरम मोलायम सोन्ह लिटी...देशी घीव में चभोरल..आह..का पूछे के ओहिपर साग अब त सोने पर सोहागा ..खूब भरि सीकम सब खींचे त अब कवनो रोग के मजाल कि केहू के लगे ठेकि त जासु...तुरन्तले उ शहर के डगर धइ त लेसु।
अब घर के बूढ़-पुरनिया लोग के दलपहिता खायेके बहुत मन करे तब चना के दाल में साग डालि के हांड़ी में रिन्हात रहे आ पियाज-लहसुन के तड़का लगा के जब थरिया में परे...ओकरे संगे सांवा,बाजरा वगैरह-वगैरह के भात में मिला के अंचार आम के चटनी आ आलू ,बैगन,टमाटर के चोखा..साग ए अब का पूछे के सब अमरित नू हो जात रहे....एकदम से मजा आ जात रहल....हमहूं खइले बानी अउरी ई सब के साक्षते साक्षी भी बानी काहें से कि अभाव में हमहूं ई कामवा कइले बानी....अब त दुनियाभर के खाना चाऊ-माउ ना जाने का-का सब रोग के खान बा उहे सबके नीमन लागता आ दवुरि-दवुरि डगडर साहब लोगन केहें जाके सब कमाई फेंकि आवताड़न जा।
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आलेख स्वरचित,मौलिक
@सर्वाधिकार सुरक्षित। ।
राम बहादुर राय
भरौली,बलिया,उत्तर प्रदेश

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