कबो कबो बड़ा मन परे लरिकइंया

कबो-कबो बड़ा मन परे लरिकइंया
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बड़ा मन परे हमरा लरिकइयां के बतिया
चलावत रहिंजा बरखा में कागज के नइया।

खेलल करिंजा दादी बाबा के अंगनइया
धूरिया में लोटत गिरि के रामजी के भुइंया।

दिन भरे संगे रहिंजा रात चकवा-चकइया
खूब लड़िंजा बाद में मिलिंजा हम तूं भइया।

ओल्हा-पाती ,चीका-कबड्डी खूबे खेलिंजा
चोर-सिपाही , गुल्ली डंटा अउरी लटुइया।

अइसने बुझाला आइत फेरू लरिकइंया
बनि के धूमितीं अपना आंगन में बकइंया।

माई सुतइती हमके गोदिया झुलाइके
अंचरा के नेह से डूबल  रहितीं दिन रतिया।

चन्दा  मामा आरे  आवऽ  सुनि  के खइतीं 
बबुआ  के  दूध-भात से  भरित कटोरिया।

कुछ खईतीं  कुछ चुपे कुकुरो के खियईतीं 
उचरत कागा  देखितीं घरवा  के मुड़ेरिया। 

कबो-कबो  बड़ा  याद  आवेला लरिकइंया
उठिती गिरितीं अंगनवा में खींचत बकइयां।
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रचना स्वरचित अउरी मौलिक 
@सर्वाधिकार सुरक्षित। ।
राम बहादुर राय 
भरौली,बलिया,उत्तर प्रदेश

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