देखते बगुले हंस के सपने

देखते बगुले हंस के सपने
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छोड़ द्रुमों की कल्प छाया
चले निराकृत हो आसक्त।

वैदेही देह तजि खड़ी हुई
जैसे खड़ा हो अनल तृप्त।

फुदक रही अशान्त क्षुधा
शान्त होकर मानो विरक्त।

देखते बगुले हंस के सपने
छीनते हैं झख के अनुरक्त।

मारें कुलांचे ताड़ पर बौने
ताने मारते जैसे हैं सशक्त।
फ़जर उदास होकर बैठे हैं
फना होंगें जैसे अभिशप्त।

मारीच के वेश में विभीषण
नैतिकता स्वत: है विभक्त।

चल रहा अदृश्य कालखंड
सत्य पस्त झूठे घूमते उद्वत।

लिख रहे हैं भाग्य अभागे
खड़ग शिला पर हर वक्त।

भाग्य कोस रही अपने को
अभाग के हाथ हैं  शसक्त।

प्रभा  खेलती  निशा के घर
घात प्रतिघात का यह वक्त। 
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रचना स्वरचित,मौलिक 
@सर्वाधिकार सुरक्षित। ।
राम बहादुर राय 
भरौली,बलिया,उत्तर प्रदेश

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