जाड़ों में ठिठुरे जैसे हिमशैल
जाड़ों में ठिठुरे जैसे हिमशैल
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वही खेत वही दिखते डांड़-मेढ़
वक्त का वक्त से नहीं तालमेल।
कुछ के घर सब कुछ रेलमरेल
कुछ के घर में चूल्हे तक फेल।
भूख की तपिश में क्या मालूम
नया-पुराना सब कुछ है बेमेल।
धन्नासेठों की हो रही खरीदारी
गरीब की रोटी की हो गई जेल।
मुर्गा-दारू की चली ठेलमठेल
वो क्या जाने कैसी है खपरैल।
उस किसान के बच्चों से पूछो
उसके हाथ लगी मिट्टी की मैल।
कैसा पुराना कैसा है नया वर्ष
खेतों में हल चलाता हुआ बैल।
राम के नाम पर दुनिया चलती
पर वह गरीबी का जैसे रखैल।
दिन-रात खेत-खरिहानों में रहे
मगर जीवन है उसका मटमैल।
कौन पूछे हाले-ए-दिल उसका
निर्मोही दौलत भी कसे नकेल।
फुटपाथ का दृश्य रात में देखो
कांपती जिंदगी का नंगा खेल।
उन्हें क्या पता नव वर्ष क्या है
जाड़ों में ठिठुरें जैसे हिमशैल।
भूख की आग बेरहम होती है
कैसे जीते हैं जेल भी है फेल।
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रचना स्वरचित और मौलिक
@सर्वाधिकार सुरक्षित। ।
राम बहादुर राय
भरौली,बलिया,उत्तर प्रदेश
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