कबो कबो याद आवे लरिक॓इयां

बड़ा याद आवे लरिकइंया
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कबो-कबो बड़ा मन परेला
आपन लरिकइया।
सावन के बरिसत बदरिया
कागज के नइया।
भादो के झपटी से टूट गिरे
छप से छजनिया।
छावल-छोपल रहत रहल
मोटकी देवलिया।
धरन-बड़ेंरा रखवारी करत
घर के भितरिया।
बांस के कोरो सुतले जागे
ढ़ोवत खपरिया।
सावन-भदवारी के झपसी
भेंवे चारपयिया।
भींजल खोतवा ताके माई
टूटत सनेहिया।
कबो-कबो बड़ा मन परेला
पहिले के बतिया।
सब केहू एकही संगे रहल
एकही अंगनइया।
रुखल सूखल खात रहिंजा
निरोगित शरीरिया।
भरल रहे चवुवन से दुवार
मिले दूध-दहिया।
लुटाई गइल रीति के गठरी
नइखे उ पिरितिया।
नवका से नीक पुरनके रहे
मिले नेह मिठइया।
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रचना स्वरचित,मौलिक
@राम बहादुर राय
भरौली,बलिया,उत्तर प्रदेश
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