जुल्फें मर्यादा भूलीं, पत्ते भी आशिक हो रहे हैं

जुल्फें मर्यादा भूलीं,पत्ते भी आशिक हो रहे हैं
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मौसम साफ़ हो रहा ,हवाएं बेख़ौफ़ हो रही हैं।
जुल्फें मर्यादा भूलीं, पत्ते भी आशिक हो रहे हैं

मिलन की चाह में पत्ते गिरकर चले आ रहे हैं।
मौसम सरस हो रहा है आमों में बौर लग रहे हैं।

भौंरे कुलांचे मार रहे हैं वो भी गिरने आ रहे हैं।
बिरहनियां जल रही हैं कोयलें ताने मार रही हैं।

किसी की याद में पत्ते गिरकर खुश हो रहे हैं।
मौसम फ़ाग हुए हैं,फूल मदमस्त हो झूम रहे हैं

मौसम भी बदल चुके हैं बूढ़े पेंड़ नये हो रहे हैं।
पुराने पत्तों की जगह कोमल पत्ते झांक रहे हैं।

इन पत्तों को देखो झुलसकर भी मुस्कुरा रहे हैं
हम हैं कि आग लगाकर भी खुश हुए जा रहे हैं।
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रचना स्वरचित एवं मौलिक
@सर्वाधिकार सुरक्षित।।
राम बहादुर राय
भरौली बलिया उत्तरप्रदेश

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