एक खुशी टंगी है दीवार पर
एक खुशी टंगी है दीवार पर
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जब भी दिल भर आता है मेरा
देखता हूं अपलक दीवार को।
सोचता हूं क्या देखता हूं रोज
लेकिन वही दीवार मैं भी वही।
अन्तत: दीवार भी सोच में थी
मेरे पास ऐसा क्या देखने को।
उमड़ते-घुमड़ते बादलों जैसे
लेकिन वही अनुत्तरित प्रश्न।
दोनों का मौन व्रत टूटे कैसे
आखिर साधना की चुप्पी थी।
मुझे ज्ञात था कि मैं चेतन हूं
मेरा दीवार जैसा रूतबा नहीं।
आखिर देख तो मैं ही रहा हूं
तो नीरवता मुझे ही तोड़ना है।
दीवार तो जमाना जैसी ही है
मुझे अपने को वैसा बनना है।
मैं जब कभी हारने लगता हूं
दीवार ही ढ़ाल बन रोकती है।
मेरी खुशी टंगी है दीवार पर
तभी देखता हूं अपलक उसे।
वह निस्पृह मिसाल होती है
मुझ वंचित को सहारा देकर।
वह मेरे दुख-सुख की सारथी
मुझे सान्त्वना देकर सुलाती।
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रचना स्वरचित और कमेंट
@सर्वाधिकार सुरक्षित।।
राम बहादुर राय
भरौली,बलिया,उत्तर प्रदेश
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