आदमी जब बड़ा होता है, आदमी नहीं रह जाता है

आदमी जब बड़ा होता है ,आदमी नहीं रह जाता है
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आदमी जब बड़ा हो जाता है, आदमी नहीं रह जाता है।
जिसने सब किया है,सबसे पहले उसे ही भूल जाता है।

पहले किसी से मिलता नहीं, मिले तो पहचानता नहीं है
कहीं हमजोली दिख जाता ,उसे नज़रंदाज़ कर जाता है।

अपना जमीर व जमीन भी,मित्रों के जैसे भूल जाता है।
गांव की माटी का जन्मा , गांव से ही दूर हो जाता है।

भूल से कभी गांव आता , कट्ठा-प्लाट,फ्लैट सुनाता है
मुर्गी के दरबे में रहता , वही फोटो सबको दिखाता है।

कोई पता पूछता है , बात वह इधर-उधर घुमाता है।
लोगों की बातों में फंस जाता,नं गलत लिखवाता है।

सोशल मीडिया में वो उम्र को कम करके ही दिखाता है
उम्र ढल गई है फिर भी, नया नया फ़ैशन आजमाता है।

शहर में एक से एक हैं, वहां भी सिमटकर रह जाता है।
गांव गढ़ कहा जाता है, उससे भी महरूम हो जाता है।

बड़े होने के चक्कर में,वह सब कुछ छोटा कर जाता है।
शहरी बनने में अपनी, संस्कार-संस्कृति भूल जाता है
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रचना स्वरचित एवं मौलिक
@सर्वाधिकार सुरक्षित।।
राम बहादुर राय
भरौली, बलिया ,उत्तरप्रदेश

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