मेरे जख्मों से भी आशीष पाते रहे

मेरे जख्मों से भी आशीष पाते रहे
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जिन्हें हम अपने पलकों पर बिठाते रहे
जिन्हें देखकर हम खूब भाव खाते रहे।

जिन पर हम अपना सब कुछ लुटाते रहे
जिन्हें देखकर हम खूब ताव खाते रहे।

वक्त के साये में इस कदर उलझाया मुझे
सब लुट लिया,जिसे अपना समझते रहे।

आहिस्ता-आहिस्ता मुझे वह रेतते रहे
हम समझे जख्मों पर मरहम लगाते रहे।

इतना बेरहम वह कैसे हो सकता है
मेरे जख्मों से भी आशीष पाते रहे।

होश में जिनको हम अपना समझते रहे
मरने की खुशी में पछता भी नहीं सके।

अब इस जमाने में किस पर भरोसा करें
अपने मुझे बहुत प्यार से रेतते रहे।

उठ गया भरोसा ,तब अकेला रहने लगे
दुश्मन से ज्यादे दोस्त जख्म देते मिले।
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राम बहादुर राय
भरौली,बलिया,उत्तर प्रदेश

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