वे तने भी खोखले निकले
वे तने भी खोखले निकले
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धूप की तपिश में बैठकर
ऐसी सूरज को गर्मी लगी।
रात की चादनी में बैठकर
गर्मी को वह बुझाता रहा।
परेशां भी था वह सोचकर
बात उसे कुछ ऐसी लगी।
वह सही था या कि गलत
बार-बार सोचता वह रहा।
उजाले भी उन्मुख हो गये
अंधेरे की चमक देखकर।
जिसे समझता बेकार था
बाज सा वो सन्मुख हुआ।
पुरस्कारों से नवाजा गया
जिसे चाहिए देखता रहा।
कोई उद्धव बनके रह गया
वो कान्हा बनके जीत गया
हाथ मलता हाथ रह गया
बैठके वह देखता ही रहा।
जिन पेड़ों का था आसरा
वे तने भी खोखले निकले।
जिस पर फक्र था मुझको
वो मुझसे छल करता रहा।
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राम बहादुर राय
भरौली,बलिया,उत्तर प्रदेश
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