उजहल बगइचन के छांह
उजहल बगइचन के छांह
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उजहल किरिनिया के धार
परल बे नइया मझधार।
अब चललो चलात नइखे
रहियो बुझाते नइखे।
नइखे बंचल कहीं अरार
कहां गइल घरवा डंड़ार।
सब केहू बइठल चुपचाप
जइसे लागल कवनो पाप।
सब कुछ लउके आर-पार
सब देखावटी बा प्यार।
हरियर-हरियर खेत रहे
बीच नदी ना रेत रहे।
प्लाट बनि के भइल तैयार
लगल फ्लैटन के बाजार।
सिकुड़ल जाता चारागाह
उजहल बगइचन के छांह।
बइठि के झंखता गंवुआ
सोचि सोचि धरता कपार।
अइसहीं सब उजहि जाई
कहंवा लुकाई मयारि।
बचाईं संस्कृति-संस्कार
अपसंस्कृति करीं किनार।
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राम बहादुर राय
भरौली,बलिया,उत्तर प्रदेश
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