लोकार्पण और सेलिब्रिटी का अड्डा बना विश्व पुस्तक मेला। ।

सन 1937 के चुनाव जैसा बना विश्व पुस्तक मेला!!!
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भारत में सन 1937 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने चुनाव हिस्सा लिया था। हालांकि पार्टी भी एकमात्र वही थी। मजे कि बात यह थी कि वह चुनाव कोई सामान्य व्यक्ति नहीं लड़ सकता था इसकी वजह भी थी....हम गुलाम थे तो अंग्रेजों की शर्तों पर ही लड़ सकते थे। बहुत ऐसे भी लोग थे जो अंग्रेजों के बनाये हुए नार्म के योग्य होकर भी चुनाव नहीं लड़े।
लेकिन जो चुनाव लड़ने के नार्म बनाये गये थे उसमें एक सामान्य आदमी तो सोच भी नहीं सकता था...उसमें सिर्फ और सिर्फ धनकुबेर, रजवाड़े या उनके प्रतिनिधी, जमींदार या विदेश में पढ़े हुए लोग ही आ सकते थे। और वही जनअंगरेज प्रतिनिधि बनते थे तो हम अनुमान लगा सकते हैं कि वो कितने कारगर साबित होते होंगे।इसमें कुछ अपवाद स्वरूप भी रहे होंगे यह भी सम्भव रहा होगा।
उपरोक्त बातों को यहां रखने का मकसद यही है कि हमारे देश में कवि-लेखक, साहित्यकार, प्रकाशक, पाठकों के लिए लगभग प्रति वर्ष विश्व पुस्तक मेला दिल्ली में लगता है तथा प्रत्येक प्रकाशक अपना बुक स्टाल लगातार उपस्थित रहते हैं। लगभग प्रत्येक कवि या साहित्यकार पुस्तक पढ़ने हेतु, पुस्तक खरीदने हेतु या अपनी जिजिविषा को शान्त करने के लिए वहां जाने का प्रयास अवश्य ही करता है। प्रकाशक लोग भी उन लेखकों का यथोचित सम्मान भी करते थे। यह नहीं देखा जाता था कि आप के पास फारचुनर,फियेट या तमाम करोड़ों की गाड़ियां हैं कि नहीं। आप प्रोफेसर या आई. ए.एस. या कोई पूंजीपति हैं कि नहीं। या कि कुछ नामचीन विद्वान परिवार से हैं कि नहीं या पूंजीगत विशेषज्ञ हैं कि नहीं। मतलब कोई सोशियो-इकोनॉमिक या कल्चरल भेदभाव या कोई किसी तरह की दुर्भावना नहीं रहती थी।
प्रकाशक भी निरपेक्ष होते थे उनको सिर्फ कवि-लेखक, साहित्यकार जो भी हैं उनका समान रुप से सार्वजनिक सम्मान करते थे लेकिन इस वर्ष मुझे ऐसा लगा कि अब क्या कहा जाये.....बहुत मुश्किल है सामान्य लेखक का वहां होना...
पहले प्रकाशक लोग आपकी पुस्तक प्रकाशित होने के बाद स्वत: सोशल साइट्स पर आमेजन लिंक या जो भी है सबका ही डालते थे।
लेकिन अब सिर्फ कुछ गिने चुने स्वजनों का ही प्रचार प्रसार किया जाने लगा है।
आपकी पांडुलिपि भले ही महीनों पहले से उनके पास पड़ी हुई हो परन्तु उनके लोगों की पांडुलिपि आपके बाद आ गई तो समझ लीजिए कोई बहाना बनाकर उनका पहले प्रकाशित कर दिया जाता है। और जब खाली समय मिलता है तब आपका कार्य शुरु किया जायेगा। यह प्रक्रिया लगातार चलती रहती है। और आप चाहकर भी कुछ नहीं कर सकते हैं।
अगर आप एक सामान्य लेखक हैं और दुर्भाग्यवश बहुत अच्छा लिखते हैं तो जानबूझकर आपकी पुस्तक प्रकाशित करने में काफी डिले किया जायेगा।
लेकिन अब उनका प्रकाशन चल पड़ा तब सिर्फ मतलब वहीं तक है जब तक पूरा पैसा नहीं मिल गया हो।
अगर लेखक ने जो निर्धारित शुल्क पे कर दिया हो तो यह समझ लीजिए आपसे ढ़ंग से बात नहीं करेंगे और तो और ये कहते हुए मिलते हैं कि मेरा और भी काम है।
अब उनको कोई सेलिब्रिटी लेखक या नेता,अभिनेता चाहिए।
अब इनको अपना प्रोडक्ट सेल करने के लिए स्वजन और ब्रांड अम्बेस्डर चाहिए।
आप कहीं गलती से पुस्तक मेले में अपने प्रकाशक के स्टॉल पर चले भी गये तो आपको मौका ही नहीं मिलेगा दो शब्द बोलने के लिए।
इनका एकमात्र उद्देश्य साहित्य सरोकार नहीं 1937 के चुनाव जैसा नार्म वालों से ही मतलब रह गया है।
जैसे चुनाव में नेताओं के साथ पूरी निहत्थी, निस्पृह भीड़ रहती है लेकिन जीतने के बाद सिर्फ कुछ लोग ही वहां जगह पाते हैं और दूसरे को आसपास तक फटकने नहीं देते हैं।
इस विश्व पुस्तक मेले में तो एक तरह का इसमें भी नेपोटिज्म आ गया है। नवकुलीन तंत्र पूरी तरह से पूरा आकार ले चुका है।
ऐसा लगता है कि कबीरदास, सूरदास,मुंशी प्रेमचंद भी होते तो उनको तो पहचानता ही नहीं।
कुछ विशेष लोग ही हैं जिनके लिए विशेष व्यव्स्था की गई है और वही तथाकथित नामचीन लोग चारों तरफ से एक रिंग फेंस बनाकर उपस्थित हैं तथा उसमें वही लोग रह सकते हैं जो उनके मातहत हैं। आप उसमें वैध नहीं हैं।
जहां तक देखें सिर्फ और सिर्फ पुस्तक लोकार्पण हो रहा है लेकिन उसमें भी विशेष ही है। जो सिने जगत के हिरो हों, विलेन या तमाम तरह के सेलीब्रेटी ही दिख रहे हैं।
कहीं ऐसा नहीं दिखा कि वह लेखक जो परिस्थिति वश नहीं पहुंच पा रहा है तो कोई उसकी पुस्तक की बात करे। यह प्रकाशक को ध्यान रखना चाहिए था लेकिन ऐसा नहीं कर सकते हैं क्योंकि आप उस नार्म में नहीं आते।
जो नहीं पहुंच पाया उसकी पुस्तकें भी डारमेट्री में रखी प्रतीत हो रही हैं।
सिर्फ वही पुस्तकें दिख रही हैं जिनका उस प्रकाशन में लोकार्पण हो रहा है।
हालांकि कुछ प्रकाशक और प्रकाशन बहुत अच्छे और इमानदारी से सूर्य की रौशनी जैसे एकसमान रुप से कार्य भी कर रहे हैं।
सभी प्रकाशक और प्रकाशन एक जैसे नहीं हैं। इसमें कुछ अपवाद स्वरूप भी हैं। हम उनकी प्रशंसा करते हैं और वह बधाई के पात्र हैं
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राम बहादुर राय
भरौली,बलिया, उत्तर प्रदेश


























































































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