साथ था मेरे, हमसफ़र था ही नहीं

साथ था मेरे, हमसफ़र था ही नहीं!
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रहगुज़र बनकर कोई यहां आता नहीं
जो होता रहगुज़र कभी बताता नहीं। 

चलते - चलते मेरे पांव रुकने लगे 
हमको ऐसे लगा ,कि हम झुकने लगे। 

बात थकने की होती तो रुकता नहीं
चुभते कांटे भी तो कुछ कहता नहीं।

कांटें पांव के हम निकालने जब लगे 
दोस्तों के निशां , हूबहू मिलने लगे।

होती दुश्मनी तो फंसते ही नहीं
फंस गये अपनों से, शक करते नहीं। 

मेरे नंबर सम से विषम होने लगे 
कटते स्वयं से , हम भी कटने लगे।

साथ था मेरे, हमसफ़र था ही नहीं
साथ होकर भी साथ,वह था ही नहीं।

न जाने पांव क्यों मेरे चुभने लगे 
रोने मैं लगा तब मित्र हंसने लगे।

बातें बनाने मुझे कुछ आता नहीं 
अपने, गैरों को पहचान पाता नहीं।

हम ही नादान है ,जो कि फंसने लगे
चुभोया कांटा , उसी पर मरने लगे। 

मैं पथिक हूं, कोई बड़ा आदमी नहीं 
मैं जनसामान्य हूं, सहन होता नहीं।

सहते-सहते हम चुप ,अब रहने लगे 
बात कहनी थी जो,मन में रखने लगे।

शज़र अमीरी का मेरे साथ ही नहीं 
कांट चुभने से दर्द मुझे होता नहीं। 
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राम बहादुर राय 
भरौली,बलिया,उत्तर प्रदेश
#highlight

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