मन उचटे,बया छछने, लुटा गइल सुख चैन
मन उचटे,बया छछने ,लुटा गइल सुख-चैन -------------------‐-------------------------------- बसि गइलऽ दिलवा में, दिल रहल ना हमार दिल से हाल पूछनीं त, दिल भइलन बेमार। नीक बड़ा लागत रहे, घूमिंजा दिनों-रात रोग अइसन धइलस अब, बिसरे नाहीं रात। चलतो अन्हुवात रहीं ,मन होखे ना भोर लउके नाहीं दिनों में, करे जिया हड़होर। हम ना जननी कि लागी,अइसन बड़का रोग जनितीं सूखी देहिया, कइले रहितीं जोग। मन केतनो पोल्हाईं , ई बिसरे ना रोग फुदुकत रहे चंचल मन, ना भावे मनभोग। का कहीं प्रीति के रीति, के होखेला भाव खबर राखि के बेखबर ,जइसे लगी अभाव। सूखि के ठठरी भइनीं,मन में खिलल गुलाब बोली सुनीं सुमधुर जब,जिया बान्हें लबाब। बिसरे सुरतिया नाहीं, गइल हिया उतराय चाहीं ना कुछू हमके, अब तोहरो सिवाय। उठत डेग निहारेला , मन होखे बेचैन मन उचटे ,बया छछने ,लुटा गइल सुख-चैन। तबो निरास नइखीं हम, लागल बाटे आस आजु ना त काल्हु मिलिहें,इहे बाटे विस्वास। ----------------------- राम बहादुर राय भरौली,बलिया,उत्तर प्रदेश